Sunday 13 September 2015
Dar....
दर्दे बयां पे मेरे, वो करते हैं वाह वाह
बताते हैं मुझे रास्ता, जो खुद ही हैं गुमराह
किससे कहूँ मैं हाल, करूँ किसपे ऐतबार
तूफ़ान से था जो डर, वो अब तुझसे है ऐ मल्लाह
Monday 13 July 2015
miss u...!
आज मेरे सपनों में फिर तुम आये थे
मुझे छू के अपने हाथों से मुस्काये थे
कितना मेरा मन था कि तुम कुछ बात करो
फिर से रोशन हम सब के तुम दिन रात करो
जब से हो गए तुम, सूना घर का आँगन है
चंदा के बिना खाली सा सारा आनन है
तारों में तुमको ढूंढा है , मैंने हर रात
अक्सर महसूस किया है, वो प्यारे नरम से हाथ
जब भी सपनों में ऐसे छू के जाते हो
आँखें खुलने पर याद बहुत तुम आते हो…
Friday 29 May 2015
अप्रत्याशित जीवन
इस अप्रत्याशित जीवन में
कल क्या होगा ये नहीं है ज्ञात
कुछ बातें लगती अंत कभी
कभी लगती जैसे हो शुरुआत
कभी तिमिर भला सा लगता है
कभी चुभता सा है ये प्रभात
कभी दोनों ही प्रिय लगते हैं
हो उज्जवल दिन या श्यामल रात
इन गूढ़ रहस्यों का बोधन
इतना भी सरल नहीं होगा
कि हर कोई सब जान ही ले
कुछ तो कारण होंगे अज्ञात
Thursday 23 April 2015
‘क्यूँ मौसम बदल रहा है’?
आज किसी ने ये समझाया, ‘मौसम बदल रहा है’
ज़रा गौर किया, मैंने भी पाया ‘मौसम बदल रहा है’
पहले तो बारिश आँसू साथ नहीं लाती थी
पहले तो नहीं ये, खेतों को, यूं झुलसाती थी
अब तो सागर लहरों से, है तूफान मचाता
अब तो बादल फटता है, जो खुशियाँ था लाता
उफ्फ़ ये मौसम बदल रहा है’, क्यूँ ये ‘मौसम बदल रहा है’
अब क्या है कारण, जो मैंने, ये सोचना चाहा
कुछ बातें याद दिला के, दिल भारी हो आया
इंसान हों, या हो नीयत, अब तो हैं सब बिक जाते
क्या नज़र है, क्या है सीरत, पल में, बदल ये जाते
फिर बड़ी है, क्या ये बात, जो ये ‘मौसम बदल रहा है’
जो लोरी सुन के सोते थे, अब ताने वो हैं सुनाते
ऐसे भी अभागे हैं कुछ, जो, बेटों से मारे जाते
क्यूँ ना दिन ये चैन खोये औ बेसुकूँ हों ये रातें
जो अब अपने शहरों में इन्सान हैं काटे जाते
फिर क्यूँ अचरज में हर आँख है, जो ‘ये मौसम बदल रहा है’
---- भावना
Wednesday 22 April 2015
विवेक और मन
जब भी विवेक और मन में, इक अंतर्द्वंद सा चलता है…
बहुधा मन ही विजयी होता , चाहे विवेक जो कहता है.
मन को तो वो करना है, जो भी उसको अच्छा लगता है
अपनी बातें मनवाने को वो, सौ -सौ कारण देता है
यदि कभी जो मन 'तार्किक' हो जाए, ऐसे तर्क बताता है
बुद्धि-विवेक चकरा जाते हैं, मन मंद-मंद मुस्काता है
बहुधा मन ही विजयी होता , चाहे विवेक जो कहता है.
मन को तो वो करना है, जो भी उसको अच्छा लगता है
अपनी बातें मनवाने को वो, सौ -सौ कारण देता है
यदि कभी जो मन 'तार्किक' हो जाए, ऐसे तर्क बताता है
बुद्धि-विवेक चकरा जाते हैं, मन मंद-मंद मुस्काता है
Thursday 2 April 2015
वक़्त
ना छोड़ के जा, यूं खफा न हो, ना कर मुझको बेज़ार
माना तू आज नहीं मेरा, आखें जो ऐसे चुरा रहा
इक रोज़ तो मेरा ही होगा, फिर क्यूँ करना तकरार
Tuesday 31 March 2015
नहीं चाहिए मोक्ष मुझे
कुछ शक्ति ढूंढ रहे हैं, तो कुछ युक्ति ढूंढ रहे हैं
तेरी इस सुंदर दुनिया से, कुछ मुक्ति ढूंढ रहे हैं
बस इतना सक्षम कर देना, कर्तव्य कभी भी लगे न भार
मैं क्यूँ ढूंढ़ू फिर शांतिमार्ग, मैं क्यूँ ढूंढ़ू कोई मुक्ति-द्वार
नहीं चाहिए मोक्ष मुझे, इसकी मुझको क्यूँ हो दरकार
तुमने ही दिया है मेरे सारे सपनों को सच में आकार
कुछ शब्दों में कैसे लिख दूँ, मुझ पर तेरे कितने उपकार
उत्कृष्ट तथा संतुष्ट हैं जो, मुझे स्नेह मिला उनसे अपार
मैंने जाने किन कर्मों के प्रतिफल में पाया ये उपहार
नहीं चाहिए मोक्ष मुझे, इसकी मुझको क्यूँ हो दरकार
ये नीला सा आकाश, मुझे ऊंचा उठना सिखलाता है
इस सबल धरा का धैर्य सदा, संयम का पाठ पढ़ाता है
ये नदियां, और ये झरने, सन्देश त्याग का देते हैं
ये वृक्ष फलों से झुके हुए, अभिमान तजो ये कहते हैं
इक क्षण में मेरे संशय सब, कर देते हैं ये निराधार
नहीं चाहिए मोक्ष मुझे, इसकी मुझको क्यूँ हो दरकार
इस रंग मंच के पात्र सभी, इस मंचन में हँसना-रोना
मुझको तो अच्छा लगता है बंधन में बंध के भी रहना
मिट्टी के इक पुतले को तुम, कैसे करते हो यूं साकार
कोटि-कोटि है नमन तुम्हें, हो सर्वश्रेष्ठ तुम रचनाकार !
जो आपने इतने मनोयोग से रचा है ये सुंदर संसार
नहीं चाहिए मोक्ष मुझे, इसकी मुझको क्यूँ हो दरकार
---भावना
Subscribe to:
Posts (Atom)