Wednesday, 7 November 2012

होड़


कहाँ गई मनुष्य की मनुष्यता नहीं पता ...
क्यूँ हैं होड़ हर मोड़ पर, कोई मुझे भी दे बता

भागते से हैं सभी, आँख कान मींच के
साथ आत्मा नहीं, शरीर ही को खींच के ..
भावना, चेतना, संवेदना को छोड़ के ..
कहाँ ले जा के छोड़ेगा, देखें हमें ये रास्ता  ..
क्यूँ हैं होड़ हर मोड़ पर, कोई मुझे भी दे बता ..

सब कुछ है पर लगता है कम, सबको आगे ही निकलना है ..
अब रहना नहीं दिलों में, अब तो चाँद पे ही रहना है .
प्यासा भ्रमित सा नर यहाँ जिसके लिए भटक रहा .
वो लक्ष्य ही है, या कोई मरीचिका नहीं पता ......
क्यूँ हैं होड़ हर मोड़ पर, कोई मुझे भी दे बता

लगती अजीब बात है, पर सच भी तो है यही ..
बन गए मकान कितने, घर मगर घर ना रहा ..
देखा किसी को चाटते, जूठे से जब पत्तल कहीं ..
हम कर रहे विकास ये, दंभ भी अब ना रहा ..
क्यूँ हैं होड़ हर मोड़ पर, कोई मुझे भी दे बता ..

कहाँ गई मनुष्य की मनुष्यता नहीं पता ...
क्यूँ हैं होड़ हर मोड़ पर, कोई मुझे भी दे बता .....