Thursday, 23 April 2015

‘क्यूँ मौसम बदल रहा है’?


आज किसी ने ये समझाया, ‘मौसम बदल रहा है’
ज़रा गौर किया, मैंने भी पाया ‘मौसम बदल रहा है’

पहले तो बारिश आँसू साथ नहीं लाती थी
पहले तो नहीं ये, खेतों को, यूं झुलसाती थी
अब तो सागर लहरों से, है तूफान मचाता
अब तो बादल फटता है, जो खुशियाँ था लाता
उफ्फ़ ये मौसम बदल रहा है’, क्यूँ ये ‘मौसम बदल रहा है’

अब क्या है कारण, जो मैंने, ये सोचना चाहा
कुछ बातें याद दिला के, दिल भारी हो आया
इंसान हों, या हो नीयत, अब तो हैं सब बिक जाते
क्या नज़र है, क्या है सीरत, पल में, बदल ये जाते
फिर बड़ी है, क्या ये बात, जो ये ‘मौसम बदल रहा है’

जो लोरी सुन के सोते थे, अब ताने वो हैं सुनाते
ऐसे भी अभागे हैं कुछ, जो, बेटों से मारे जाते
क्यूँ ना दिन ये चैन खोये औ बेसुकूँ हों ये रातें
जो अब अपने शहरों में इन्सान हैं काटे जाते
फिर क्यूँ अचरज में हर आँख है, जो ‘ये मौसम बदल रहा है’

---- भावना






Wednesday, 22 April 2015

विवेक और मन

जब भी विवेक और मन में, इक अंतर्द्वंद सा चलता है…
बहुधा मन ही विजयी होता , चाहे विवेक जो कहता है.

मन को तो वो करना है, जो भी उसको अच्छा लगता है
अपनी बातें मनवाने को वो, सौ -सौ कारण देता है

यदि कभी जो मन 'तार्किक' हो जाए, ऐसे तर्क बताता है
बुद्धि-विवेक चकरा जाते हैं, मन मंद-मंद मुस्काता है

Thursday, 2 April 2015

वक़्त


ऐ वक़्त, ज़रा सा ठहर कभी, कर लें बातें दो-चार
ना छोड़ के जा, यूं खफा न हो, ना कर मुझको बेज़ार
माना तू आज नहीं मेरा, आखें जो ऐसे चुरा रहा
इक रोज़ तो मेरा ही होगा, फिर क्यूँ करना तकरार