उलझन
बचपन में इक स्वप्न था देखा, बनना है कुछ मुझको..
पाना है कुछ, निज कर्मों से होना संतुष्ट है मुझको...
इस कर्म भूमि की उष्ण रेत पर मैं चलती ही रही थी...
हाँ कुछ डग थे अनजाने से, तब मैं सहमी सहमी थी...
कहीं प्रेम मिला, कहीं अनुभव थे, जो देते थे मन को बल..
संग संग मेरे चलते थे, अवनि, अम्बर और ये जल..
चढ़ लिए हैं कुछ सोपान किन्तु वो लक्ष्य अभी है ओझल..
मेरे इस मन की दशा भी, कभी व्यग्र, कभी है चंचल..
पर मन करता है प्रश्न मेरा, क्या मंजिल से ही है प्रीत..
"पथ" तेरे जो संग चला है, ये भी तो है तेरा मीत..
फिर होकर सजग ये चित्त मेरा कहता है झिंझोड़ के मुझको..
ये मार्ग नहीं था लक्ष्य तेरा, कुछ प्राप्त था करना तुझको..
तब भी न ये मैं जान सकी थी, न अब तक है जाना..
वो कौन है जो सब कह देगा, क्या है मुझको पाना..
हो रहा ह्रदय में उथल-पुथल, अब कौन बताये मुझको..
क्या बनना है, क्या करना है और क्या पाना है मुझको....
मुझे तो पता ही नहीं था तुम्हारी इस प्रतिभा का, तुमने तो न जाने कितनी आसानी से इन्हें लिख डाला पर मुझे तो तीन दिन लग गए कमेन्ट डालने में. क्या शब्दों का चयन है और क्या निरंतरता है वाक्यों में और एक बात है की तुम्हारी सारी कवितायेँ तुम्हारे नाम को सार्थक करती हैं बहुत खूब, लिखती रहो , और एक दिन तुम खुद की कविताओं की किताब निकालो. मेरी शुभकामनाएं तुम्हारे साथ हैं.
ReplyDeletethanx a lot chachu!
ReplyDeletehmm nice one.selection of words are really good.awesome feeling.
ReplyDeletethanx Atul!
ReplyDeleteThanks a lot friends for giving me ur invaluable votes!!!!!!!!!
ReplyDeleteGreat job di........... i love these . Amazing i am speechless to read this....... really you r too good.
ReplyDeletethanx bhai....for such nice words..
Delete